तीर्थ यात्राएं आस्था की प्रतीक मानी जाती हैं, लेकिन जिस आस्था में रोमांच भी शामिल हो जाए तो यात्रा अविस्मरणीय बन जाती है। मणिमहेशकी यात्रा भी आस्था व रोमांच का प्रतिनिधित्व करती है। छोटा कैलाश के नाम से जानी जाने वाली, 18564फुट ऊंची चोटी को शीश नवानेहर वर्ष हजारों शिव भक्त दुर्गम व जोखिम भरे सफर को तय करके पहुंचते हैं। हिमाचल प्रदेश में चम्बाजिले के जनजातीय क्षेत्र भरमौरस्थित बुढहलघाटी की यह सबसे ऊंची चोटी है, जहां शिव का निवास माना गया है। इस चोटी के अंचल में समुद्र तल से चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर शिव चौगान कहा जाने वाला एक ढलानदारखुला भू-भाग है, जिसमें करीब डेढ सौ मीटर परिधि की डल झील है। इस झील में डुबकी लगाकर ही यात्रा की इतिश्री होती है और सांसारिक यात्रा की समाप्ति पर हम स्वर्ग में दस्तक दे सकते हैं, ऐसी मान्यता है। मणिमहेशके लिए वैसे तो मई से अक्टूबर तक श्रद्धालु जाते रहते हैं, लेकिन श्री कृष्ण जन्माष्टमी और राधाष्टमीको विशेष पर्व होते हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को छोटा न्होणलघु स्नान होता है, जिसमें ज्यादातर लोग जम्मू-कश्मीर के भद्रवाहइलाके से आते हैं। और नंगे पांव चलते हुए ये लोग छोटा न्होणसे तेरह दिन पहले ही यात्रा शुरू कर देते हैं। प्रमुख पर्व राधाष्टमीको ही होता है जब पारम्परिक मणिमहेशयात्रा यहां पहुंचती है। मणिमहेशपहुंचने के तीन रास्ते हैं। एक रास्ता लाहौलकी ओर से है और दूसरा कांगडा से। लेकिन ये दोनों रास्ते पैदल नापने पडते हैं और जोखिम अत्याधिकहै। कांगडा से अगर हम जाएं तो जालसूदर्रा भी हमें पार करना पडेगा। लेकिन आम श्रद्धालु के बूते की यह बात नहीं, यहां के मूल निवासी गद्दियों को ही ऐसा अभ्यास है। जाहिर है, मणिमहेशपहुंचने के लिए कांगडा और लाहौलकी अपेक्षा चम्बासे जाने वाला रास्ता आसान है, लेकिन रोमांच इस सफर में भी कम नहीं। चम्बासे भरमौरहोते हुए हडसरतक 64किलोमीटर का सफर बस योग्य सडक से किया जा सकता है। हडसरइस रास्ते का अन्तिम गांव भी है और यात्रा का एक पडाव भी। आगे कोई आबादी नहीं। हडसरमें ही मणिमहेशके पुजारी रहते हैं। हडसरसे सीधी और खडी चढाई है। आसमान साफ रहे तो कोई विशेष जोखिम नहीं है। हडसरसे सात किलोमीटर दूर धनछो आता है जहां एक रम्य जल प्रपात है। मान्यता है कि भस्मासुर ने शिव से यह वरदान पा लेने के बाद कि वह जिसके सिर पर भी हाथ रख देगा, वही स्वाहा हो जाएगा, पहला निशाना शिव को ही बनाना चाहा। तब इसी जलप्रपात में शिव ने शरण ली थी। यात्रा पर चले श्रद्धालु अब यहां पडाव भी डालते हैं और स्नान भी करते हैं। अगले दिन प्रात:मणिमहेशके लिए फिर श्रद्धालु चल पडते हैं।
धनछोसे मणिमहेशअब सात किलोमीटर रह जाता है और रास्ते भी दो हैं। एक खच्चररास्ता और दूसरा बंदरघाटीव भैरोघाटीको लांघ कर। घाटियों का रास्ता चूंकि अत्याधिकजोखिम भरा है, अत:रोमांच प्रेमी श्रद्धालु इस ओर रुख करते हैं, बाकी लोग खच्चररास्ते को ही नापते हैं। रास्ते में वन औषधियों की महक भी श्रद्धालुओं को ताजादम किए रखती है, लेकिन जडी-बूटियों की पहचान में अगर कोई श्रद्धालु गलती खा जाए और किसी जहरीली बूटी को सूंघ ले तो वह बेहोश भी हो सकता है। मणिमहेशसे थोडा पीछे गौरी कुण्ड और शिव करौतरीनामक स्थल आते हैं। महिलाएं गौरी कुण्ड और पुरुष शिव करौतरीमें स्नान करते हैं। मणिमहेशकी डल झील के पास पहुंचते ही यात्रियों में शामिल चेले सर्वप्रथम झील के बर्फानी जल में छलांग लगा देते हैं और देखते ही देखते झील पार कर जाते हैं। जो चेला सर्वप्रथम झील पार करता है, वह आगामी वर्ष का प्रमुख चेला कहलाता है। लेकिन होता यूं भी है कि जब चेले झील में कूद जाते हैं, तो श्रद्धालु भी उनके पीछे छलांग लगा देते हैं, स्नान के लिए कम, चेलों को पकडने के लिए अधिक। मान्यता है कि चेले को सर्वप्रथम पकडना बडा शुभ होता है और श्रद्धालु की वैतरणी भी पार हो जाती है। मणिमहेशपर्वत वर्ष भर गहरे धुंध के आवरण में लिपटा रहता है, अगर किसी पर्व पर श्रद्धालुओं को दर्शन दे जाए तो बडा शुभ माना जाता है। जिस दिन मणिमहेशमें प्रमुख स्नान पर्व होता है, उस रात मणिमहेशपर्वत से एक दिव्य प्रकाश फूटता भी दिखाई देता है। इसे प्रकृति का अजूबा भी माना जा सकता है और चमत्कार भी।